हर बड़े खेल आयोजन के बाद, टिप्पणीकार, खेल समीक्षको की टिप्पणीयां आती है कि "इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद,हम खेलों इतने पीछे क्यों?"
हो सकता है मै गलत हूँ, फिर भी सोचता हूँ कि जितने खिलाड़ी बड़े खेल आयोजनों के पोडियम तक पहुंचते है, वह असाधारण प्रतिभा के धनी होते है। उनकी प्रतिभा, आज के जमाने मे, जब हर हाथ कैमरा लिए हुए है, दुनियाँ को नजर आ ही जाती है.
करीब 10साल पहले "बुधिया " नाम के एक धावक बच्चे ने राष्ट्रीय मिडिया मे, अखबारों मे जगह बनायीं थी, फिर वह बात आई गई हो गयी।
प्रतिभाएं अगर ढ़ूढ़ने जाओ तो आपको बेहतरीन नगीने नजर आ जायेंगे, दुःख होता है कि जो प्रतिभा निशानेबाजी से देश का नाम रोशन कर सकती थी, उसको पत्थर मारने की ट्रेनिंग मिलती है. कितनी प्रतिभाएं गलत मार्गदर्शन, धार्मिक कटटरताओं मे फंसकर, अपनी प्रतिभा के नाश का कारण खुद बन जाते है।कुछ के आर्थिक हालात इतने विषम होते है कि उन्हें कबाड़ बेचने तक का काम करना पड़ता है।
आरक्षण, सरंक्षण, राजनीति, नौकरशाही यह सब बाधायें है जो प्रतिभाओं के उत्थान मे, बहुत बड़ी रोक है.
सरकार अगर खुद प्रतिभा सरंक्षण या खोज का काम नहीं कर सकती है तो यह काम उन्हें बड़े औद्योगिक घरानों को देना चाहिए क्योंकि यें औद्योगिक प्रतिष्ठान सामाजिक गतिविधियों के लिए एक अच्छी धनराशि खर्च करते है।
विदेशों मे, प्रतिभाओं को,बचपन से सरकारों द्वारा अथवा अमीर औद्योगिक घरानों द्वारा प्रायोजित किया जाता है।
हमारे खेल निदेशालय, स्टेडियम, खेलों की धनराशि, पुराने अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के मार्गदर्शन मे चलने चाहिए, जिससे अवकाश प्राप्त खिलाडियों का अनुभव, प्रतिभा विकास मे अच्छा योगदान दे सकता है।