Wednesday 20 September 2023

खुद से मुलाक़ात

कभी खुद से भी
कर लिया करो बात
कितना वक्त गुजर गया
खुद से भी जो नहीं हुई मुलाक़ात

क्या ही अच्छा होता
जो चिंता मे होता महज रोटी भात
धन, बैंक की तिजोरी की चिंता
कर दिया, जिनके लिए एक दिन रात

कभी खुद से भी
कर लिया करो बात
कितना वक्त गुजर गया
खुद से भी जो नहीं हुई मुलाक़ात


न सियासत, न नफासत
न ऊंच नीच, न जात पात
मन कहले, मस्तिष्क कहले
सुन अपने भीतर की धात

कभी खुद से भी
कर लिया करो बात
कितना वक्त गुजर गया
खुद से भी जो नहीं हुई मुलाक़ात

खुद से दूर होकर,
मिट जायेंगे जज्बात
खुद को सुनना सीख
भूल जा जीवन की शह मात

कभी खुद से भी
कर लिया करो बात
कितना वक्त गुजर गया
खुद से भी जो नहीं हुई मुलाक़ात





Sunday 6 August 2023

प्रतिभा

हर बड़े खेल आयोजन के बाद, टिप्पणीकार, खेल समीक्षको की टिप्पणीयां आती है कि "इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद,हम खेलों इतने पीछे क्यों?"

हो सकता है मै गलत हूँ, फिर भी सोचता हूँ कि जितने खिलाड़ी बड़े खेल आयोजनों के पोडियम तक पहुंचते है, वह असाधारण प्रतिभा के धनी होते है। उनकी प्रतिभा, आज के जमाने मे, जब हर हाथ कैमरा लिए हुए है, दुनियाँ को नजर आ ही जाती है.
करीब 10साल पहले "बुधिया " नाम के एक धावक बच्चे ने राष्ट्रीय मिडिया मे, अखबारों मे जगह बनायीं थी, फिर वह बात आई गई हो गयी।

प्रतिभाएं अगर ढ़ूढ़ने जाओ तो आपको बेहतरीन नगीने नजर आ जायेंगे, दुःख होता है कि जो प्रतिभा निशानेबाजी से देश का नाम रोशन कर सकती थी, उसको पत्थर मारने की ट्रेनिंग मिलती है. कितनी प्रतिभाएं गलत मार्गदर्शन, धार्मिक कटटरताओं मे फंसकर, अपनी प्रतिभा के नाश का कारण खुद बन जाते है।कुछ के आर्थिक हालात इतने विषम होते है कि उन्हें कबाड़ बेचने तक का काम करना पड़ता है।
आरक्षण, सरंक्षण, राजनीति, नौकरशाही यह सब बाधायें है जो प्रतिभाओं के उत्थान मे, बहुत बड़ी रोक है.
सरकार अगर खुद प्रतिभा सरंक्षण या खोज का काम नहीं कर सकती है तो यह काम उन्हें बड़े औद्योगिक घरानों को देना चाहिए क्योंकि यें औद्योगिक प्रतिष्ठान सामाजिक गतिविधियों के लिए एक अच्छी धनराशि खर्च करते है।

विदेशों मे, प्रतिभाओं को,बचपन से सरकारों द्वारा अथवा अमीर औद्योगिक घरानों द्वारा प्रायोजित किया जाता है।

हमारे खेल निदेशालय, स्टेडियम, खेलों की धनराशि, पुराने अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के मार्गदर्शन मे चलने चाहिए, जिससे अवकाश प्राप्त खिलाडियों का अनुभव, प्रतिभा विकास मे अच्छा योगदान दे सकता है।

Friday 30 December 2022

हंसने वालों से डर गया हूँ मै

कमलेश,हंसने वालों से डर गया हूँ मै
जिंदा हूँ तन से, मन से मर गया हूँ मै।

दुनियां यूँ ही नहीं भुला पायेगी मुझे,
थोड़ा ही सही,कुछ तो  कर गया हूँ मै।

मुझे मिटाने मे, जख्मी हो गये थे जो,
मरहम से उनके ज़ख्म भर गया हूँ मै।

अल्फाजों के जहाँ मे, पनाह ली है जबसे
माया मोह के बंधनों से, तर गया हूँ मै
कमलेश,हंसने वालों से डर गया हूँ मै
जिंदा हूँ तन से, मन से मर गया हूँ मै।

Sunday 24 July 2022

वे भी थे किसी क़े बच्चे
पर उनके पास खिलौने नहीं थे!
वे भटक रहे थे गली गली,
लटकाये कंधे मे बड़ा सा थैला?
दूध दही की थैलियां
पानी, जूस की बोतले
देखकर, चमकती उनकी आँखें,
उनके बिखरे बाल
बदन लगता निढाल
इसी दुनियाँ क़े है ये बच्चे
जहाँ किसी का बच्चा, चैन से
मखमल क़े गद्दे मे सोता है
फिर ऐसा होता क्यों है?
सुखी बच्चा फिर भी रोता क्यों है?
बड़ा सा थैला लटकाये बच्चे
लगता है, जैसे ढो रहे हों,
अपनी, ख़ुशी अपना दर्द भी
उस बड़े से थैले मे.

अमौलिक इंसान मौलिक जानवर

आप सब यह मानेंगे कि प्रकृति में जो भी मूल रूप जो पैदा हुआ उनमें व्यवहार में, आदत में, आचरण में, अगर किसी बदलाव आया है तो इंसान हैं, और अपने इसी अमौलिक रूप के लिए इंसान हत्याएं करता है,युद्ध करता है,अंह पालता है।
 शेर पैदा भी शेर होता है और पैदा हो जाने के बाद भी आजीवन शेर ही रहता है, मांसाहार उसकी प्रकृत्ति है।
 गाय गाय ही पैदा होती है और आजीवन गाय ही रहती है, शाकाहार उसकी प्रकृति है। शेर आपस में लड़ते हुऐ बहुत कम देखे जाते हैं, गाय या अन्य जीव-जंतु भी अपनी प्रजाति में लड़ते हुए बहुत कम देखे जाते हैं।

 जिस इंसान को हम बुद्धिमान कहते हैं, वह अपने लिए आस्था में बनाता है, रीति रिवाज बनाता है, वह अपने को रंग रूप देश धर्म के आधार पर विभाजित करता है और अपने बनाए हुए इन छोटे-छोटे समूहों के लिए, उन समूह के लिए बनायी गईं आस्थाओं के लिए, रीति रिवाज के लिए, अपने ही किसी दूसरे समूह को मिटा देना चाहता है, उससे आजीवन नफरत करता है। यहां तक कि उसने इस सृष्टि के निर्माता को अपनी समूह की परिभाषा से गढ़ दिया है और अपने गढे हुए इस सृष्टि निर्माता के लिए वह दूसरे समूह के लोगों से लड़ाई करता है।
 


 
 

Monday 11 July 2022

धर्म और संस्कार

हमारे देश में आजकल टीवी चैनल की बहस में, संसद में विधायिका में, हिंदुओं के देवी देवताओं के बारे में अमर्यादित टिप्पणियां खूब की जा रही है। ऐसे ही टिप्पणी करने वाले लोगों को मीडिया में, सोशल नेटवर्किंग साइट्स में भी खूब तवज्जो दी जा रही है।
देश का बहुसंख्यक समाज, धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़ कर सोया हुआ है और हमारे देश का एक समाज अराजकता की हद तक पार कर दे रहा है।
 धर्मनिरपेक्षता कहीं न कहीं नास्तिकता से मेल खाता हुआ सा लगता है, संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ने के बावजूद, देश की सरकारों ने मंदिरों की दानराशि पर कब्जा किया हुआ है, कितना विरोधाभास है। संविधान से धर्मनिरपेक्षता शब्द को हटाइए तभी मंदिरों की दान राशि पर हस्तक्षेप कीजिए।

 पोंगा पंडितों द्वारा तथा टीवी चैनलों पर धर्म की शिक्षा देने वाले तथाकथित संतों ने कुरीतियों  और गलत परिपार्टियों को बढ़ावा देकर सनातन संस्कृति को बहुत नुकसान पहुंचा है. सेकुलरिज्म की डुगडुगी बजाने वाले नेताओं ने भी कम नुकसान नहीं किया है.
 वेद और उपनिषद जो मनीषियों द्वारा रचे गए हैं और जो मनुष्य समाज के हर क्षेत्र में उपयोगी हैं उनका अध्ययन करने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं, जबकि पाश्चात्य देश इन को अपना रहे हैं. इनको रचने वाले मनीषियों ने भी इनको मनुष्य मात्र के लिए समर्पित किया हुआ है।

 सनातन संस्कृति में छोटी चींटी से लेकर बड़े हाथी तक हर जीव को किसी देवी देवता का वाहन इसलिए बताया गया है ताकि मनुष्य मात्र उनकी हिंसा न करें और सारी जीवधारी साहचर्य से रह सके, इसलिए पशु बलि का सनातन संस्कृति में कोई स्थान नहीं हो सकता, कुछ पोगा पंडितों की गलत विवेचन की वजह से यह समाज में प्रचलन में आया।